आपको पता है? ईयर 1811 में केवल 3005 रुपये में बिक गया था Dehradun

Dehradun History : मेजर हैदर यंग हर्से ने गढ़वाल के उत्तराधिकारी सुदर्शन शाह से खरीदा था दून घाटी को

Dehradun

उत्तराखंड का नाम जुबां पर आता है तो राजधानी Dehradun का नाम खुद ब खुद ही दिमाग में आ जाता है। पहाड़ों के बीच में बीस दूनघाटी का अपना लंबा इतिहास है। ऐसा इतिहास, जिसमें छिपी हैं कई जंग, जिसमें सहेजा गई हैं स्वर्णिम यादें, जिसमें बसा है बहादुरी का अफसाना। इतिहास के ऐसे ही आईने से हम आपको बता रहे हैं देहरादून की पुरानी कहानी। ऐसी कहानी, जिसे आज तक न तो आपने पढ़ा होगा और न ही सुना होगा।

वर्ष 1811 को एंग्लो इंडियन सेना अधिकारी मेजर हैदर यंग हर्से ने देहरादून को गढ़वाल के राजा सुदर्शन शाह से मात्र 3005 रुपये में खरीद लिया था। हालांकि मेजर हर्से ज्यादा लंबे समय तक देहरादून के मालिक नहीं रह पाए। 1812 में अंग्रेजों ने उनसे समझौता करने के बाद देहरादून पर कब्जा कर लिया। बाद में समझौते की शर्तों का भी खुला उल्लंघन कर दिया।

14 मई 1804 को शहीद हो गए थे महाराजा प्रद्युम्न शाह
वर्ष 1796-97 में पूरे गढ़वाल को भयंकर सूखे का सामना करना पड़ा, जिससे राजकोषीय व्यवस्था पूरी तरह ध्वस्त हो गई थी। इसके कुछ वर्ष बाद वर्ष 1803 में श्रीनगर क्षेत्र को ऐसे विनाशकारी भूकंप का सामना करना, जिसमें संपूर्ण श्रीनगर तहस-नहस हो गया। तब राजधानी में दो से तीन हजार लोग ही जीवित बच पास। गोरखाओं को तो इसी मौके का इंतजार था। उन्होंने इसका लाभ उठाकर इसी वर्ष गढ़वाल पर दोबारा आक्रमण कर सारे गढ़वाल को अपने कब्जे में ले लिया। तब महाराजा प्रद्युम्न शाह के पास श्रीनगर छोड़ना ही एकमात्र विकल्प शेष रह गया था। बावजूद इसके उन्होंने हिम्मत नहीं हारी। जैसे-तैसे डेढ़ लाख रुपये में सहारनपुर में आभूषण बेचकर सैनिकों का इंतजाम किया और वर्ष 1804 में गोरखाओं पर आक्रमण कर दिया। देहरादून में खुडबुड़ा मैदान में गोरखाओं से भीषण युद्ध हुआ। चार हजार गोरखा सैनिक बंदूकों से लैस थे। जबकि, गढ़वाली सैनिकों के पास सिर्फ तलवारें थीं। नतीजा, गोरखाओं को जीत मिली और 14 मई 1804 को महाराजा प्रद्युम्न शाह वीरगति को प्राप्त हो गए।

22 जून 1811 से 09 जनवरी 1812 तक मालिक रहे मेजर हर्से
महाराजा की शहादत के समय उनके शाहजादे और गढ़वाल राज्य के उत्तराधिकारी सुदर्शन शाह छोटे थे। सो, गोरखा आक्रमण के भय से राजा के कुछ वफादारों ने उन्हें रियासत से बाहर सुरक्षित स्थान पर पहुंचा दिया। सुदर्शन शाह ने 12 साल निर्वासित जीवन बिताया। अपनी पुस्तक ‘गौरवशाली देहरादून’ में देवकी नंदन पांडे लिखते हैं कि इस कालखंड में रियासत को दोबारा हासिल करने की टीस उनके मन में लगातार बनी रही और इसके लिए वे लगातार प्रयास करते रहे। इसी कड़ी में उन्होंने एंग्लो इंडियन सैन्य अधिकारी मेजर हैदर यंग हर्से से संपर्क साधा। हर्से तब बरेली शहर के पास अपनी रियासत में रहते थे। सुदर्शन शाह अपनी रियासत से दूर रहने के कारण आर्थिक तंगी से जूझ रहे थे। लिहाजा, रियासत को दोबारा हासिल करने के लिए उन्होंने अपनी समस्या हर्से के सामने रखते हुए सहयोग का आग्रह किया।
हर्से तब ईस्ट इंडिया कंपनी के कुशाग्र सैन्य अधिकारी हुआ करते थे। उन्होंने सुदर्शन शाह को रियासत वापस दिलाने का भरोसा तो दिलाया, लेकिन इसके बदले में दूनघाटी को अपने अधिकार में लेने की इच्छा भी जता दी। उन्होंने सुदर्शन शाह से स्पष्ट कहा कि दूनघाटी उन्हें बेच दें। सुदर्शन शाह मजबूर थे ही, इसलिए 22 जून 1811 को उन्होंने दूनघाटी मेजर हैदर यंग हर्से को मात्र 3005 रुपये में बेच दी। मेजर हैदर यंग हर्से राजा सुदर्शन शाह से दूनघाटी को खरीदकर भले ही संपन्नता का प्रतीक बन गए थे, लेकिन वह ईस्ट इंडिया कंपनी के अधिकारियों की नजरों में भी खटकने लगे। हर्से पर कंपनी अधिकारी दबाव बनाने लगे कि वह दूनघाटी और
चंडी देवी का क्षेत्र, जो उनके अधीन है, कंपनी को बेच दें। आखिरकार हर्से को झुकना पड़ा और नौ जनवरी 1812 को उन्होंने इस शर्त पर दूनघाटी और चंडी देवी क्षेत्र कंपनी को हस्तांतरित कर दिया कि कंपनी उन्हें 1200 रुपये सालाना पेन्शन के रूप में देगी। कंपनी की ओर से 18 अक्टूबर 1815 को इस समझौते पर हस्ताक्षर किए गए। कंपनी अधिकारियों से सौदा करते वक्त मेजर हर्से को इस बात का इल्म भी नहीं रहा होगा कि वह अपनी बात से मुकर जाएंगे। लेकिन, हुआ ऐसा ही। कंपनी ने हर्से से की गई सेल डीड और उसके अंतर्गत आने वाली सभी शर्तें झुठला दीं। जिससे हर्से सड़क पर आ गए।

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