इनसे सीखें!– ‘लुहां- दिगोली’ गांव की महिलाओं ने बंजर भूमि पर उगाया 5 लाख पेड़ो का हरा सोना, 15 सालों से नहीं लगी जंगल में आग…

विश्व पर्यावरण दिवस(world environment day) पर ग्राउंड जीरो से संजय चौहान की विशेष रिपोर्ट

 

Sanjay chauhan journalist uttarakhand
संजय चौहान, स्वतंत्र पत्रकार, उत्तराखंड

आज विश्व पर्यावरण दिवस(world environment day) पर पर्यावरण बचाने को लेकर बड़े बड़े शहरों के एसी कमरों में इस पर विद्वानों द्वारा एक दिन का मंथन होगा, जिसके बाद पूरे साल मौन रहकर पर्यावरण बचायेंगे। इन सबसे इतर आज आपको उत्तराखंड के दो गांव की उन महिलाओं की मेहनत से रूबरू करवायेंगे, इन महिलाओं नें बिना किसी शोर शराबे के बीच चुपचाप अपनें अथक प्रयासों से बंजर भूमि पर विशाल जंगल खड़ा है, जिसमें वर्तमान में लगभग 200 प्रजाति के 5 लाख पेड है मौजूद है।

 

World environment day uttarakhand

गौरा देवी के चिपको आंदोलन से मिली प्रेरणा
70 के दशक के वन आंदोलन नें पूरे उत्तराखंड के आम जनमानस को प्रभावित किया। खासतौर पर गौरा देवी के अंग्वाल (चिपको आंदोलन) नें ग्रामीणों को पेडो और जंगलों की उपयोगिता और निर्भरता के असल मायनों से अवगत कराया। इस आंदोलन के दौरान ही चमोली की धान की डलिया, सदावर्त पट्टी के रूप में विख्यात सांस्कृतिक त्रिवेणी धरा बंड पट्टी के दो गांव लुहां- दिगोली की महिलाओं नें बंजर भूमि में पेड़ लगाने का बीड़ा अपने हाथों में लिया। ग्राम प्रधान लुहां शशि पुंडीर, वन पंचायत सरपंच दिगोली वीरेन्दर पुरोहित, वन पंचायत सरपंच लुहां दलवीर राणा ,पूर्व प्रधान दिगोली सुनैना पुरोहित, महिला मंगल दल अध्यक्षा लुहां सतेश्वरी नेगी, अध्यक्ष महिला मंगल दल दिगोली विद्यादेवी रावत, क्षेत्र पंचायत सदस्य लुहां दिगोली मीना बिष्ट सहित अन्य ग्रामीण बताते हैं कि गांव में जंगल न होने से दोनों गांव के ग्रामीण को अपने मवेशियों के लिए चारा और ईधन के लिए लकड़ी हेतु पडोसी गांवों के जंगलों में भटकना पडता था। हर रोज ग्रामीणों को 10 से 15 किमी जाना पड़ता था। चिपको आंदोलन नें ग्रामीणों को प्रोत्साहित किया परिणामस्वरूप आज ग्रामीणों के पास खुद का जंगल है।

200 प्रजाति के 5 लाख पेड़, पेयजल स्रोत(water resources) भी हुये रीचार्ज
गांव में लकड़ी, चारा-पत्ती और पानी की समस्या से निजात पाने के लिए 45 साल पहले शुरू की गई लुहां दिगोली गांव की महिलाओं की मेहनत आखिरकार रंग लाई। महिलाओं ने स्वयं के प्रयासों से गांव में बांज, बुरांश, अंग्यार, काफल, फनियाट, पंय्या, अखरोट, आडू, समेत कई पौधे लगाए थे जहां अब विशाल जंगल बन गया है। इस जंगल से आज गांव ही नहीं बल्कि अगल बगल पडोसी गांवो के पुराने पेयजल स्रोत रिचार्ज हो रहे हैं तो कई जगह नये जलस्रोत फूट गये हैं।

Uttarakhand forest

महिलाओं ने पौधों को अपने बच्चों की तरह पाला
लुहां दिगोली की महिलाओं नें इस जंगल में उगे पेड़ो को अपने बच्चों की तरह पाला। गांव में पानी की भारी कमी थी, लिहाजा महिलाओं ने अपने पीने के पानी से पौधों को सींचने के लिए पानी दिया। महिलाओं नें अपनी पीठ पर गोबर, खाद-पानी ढोकर पौधों को दिया। विगत 28 सालों से यही जंगल अब ग्रामीणों के मवेशियों के लिए चारा और ईधन व कृषि कार्य हेतु लकड़ी उपलब्ध करा रहा है। लुहां दिगोली के क्षेत्र पंचायत सदस्य सुनील कोठियाल बताते हैं कि ये जंगल पर्यावरण संरक्षण और सामूहिक सहभागिता का सबसे बड़ा उदाहरण है। आज हमें ये पेड़ जल स्रोतों को रिचार्ज कर लगभग 1000 लोगों को पानी, चारा-पत्ती और ईधन हेतु लकड़ी दे रहे हैं। साथ ही पशुपालन और दुग्ध उत्पादन के जरिए गांव में ही रोजगार भी पैदा कर रहे हैं।

जंगल को माना मायका
लुहां दिगोली की महिलाओं नें इस जंगल को अपना मायका माना। बिमला कोठियाल, मंगला देवी बिष्ट, चंपा देवी, रूद्रा देवी, वरदेई देवी, पार्वती देवी, काश्मीरा देवी, उमा देवी, शकुन्तला देवी, अनीता देवी, सुनीता देवी सहित दोनों गांवों की समस्त मात्रृशक्ति नें इस जंगल को मायके की तरह माना। वन विभाग भी गांव की महिला मंगल दल को कई बार सम्मानित कर चुका है।

Uttarakhand kafal

काफल के लिए प्रसिद्ध है जंगल
उक्त जंगल जैव विविधता का भंडार हैं। यहाँ पर 200 प्रजाति के पेड़ हैं। लेकिन सबसे ज्यादा ये जंगल काफल के लिए प्रसिद्ध है। हर साल मई-जून में इस जंगल पर नजर दौड़ाओ तो चारों ओर काफल ही काफल नजर आते हैं। यहाँ के काफल बेहद रसीले होते हैं। गांव वाले अपनी बेटियों और रिश्तेदारों के लिए काफल से भरी टोकरी की समौण भेजते हैं।

दो दशक से नहीं लगी गांव के जंगल में आग
पूर्व क्षेत्र पंचायत सदस्य एवं सामाजिक कार्यकर्ता सुनील कोठियाल कहतें हैं इस साल पूरे प्रदेश के जंगल आग की भेंट चढ़ गये थे। लेकिन हमारे गांव के जंगल में आग नहीं लगी। ये जंगल उनके लिए हरा सोना है। इसकी रक्षा करना हमारा हमारा परम कर्तव्य है। इस जंगल में पिछले दो दशकों से कोई भी आग नहीं लगी। गांव के इस जंगल की रखवाली खुद ग्रामीण करते हैं। हर साल जंगल से चारा काटने के लिए एक निश्चित समयावधि निश्चित की जाती है। जिसके तहत ग्रामीण द्वारा चारे के लिए केवल पेड़ो की पत्तियों को कटाई छंटाई करके मवेशियों को लाई जाती है। जिससे पेड को किसी भी प्रकार का नुकसान नहीं पहुंचता है। इसके अलावा ये जंगल चारा के साथ धार्मिक कार्यों में प्रयुक्त होने वाली लकड़ी भी उपलब्ध कराता है, जैसे पांडव नृत्य के अवसर पर मोरी डाली और पदम वृक्ष-पंय्या डाली।

अभिभूत जंगली ने राष्ट्रीय पुरस्कार का प्रस्ताव भेजा
ग्रामीण गजेन्द्र सिंह राणा, किशन सिंह पुंडीर, हरेन्द्र रावत, सुनील कोठियाल सहित अन्य ग्रामीणों नें बताया की विगत दिनों लुहां दिगोली गांव में आयोजित एक कार्यक्रम में बतौर मुख्य अतिथि के रूप शिरकत करने पहुंचे उत्तराखंड के वन विभाग के ब्रांड एम्बेसडर और प्रख्यात पर्यावरणविद्ध जगत सिंह चौधरी ‘जंगली’ नें जब महिलाओं के द्वारा तैयार किये गये जंगल को देखा तो वे बेहद प्रफुल्लित हो गये और समस्त ग्रामीणों को बहुत बधाइयाँ भी दी। उन्होंने उक्त जंगल को राष्ट्रीय पुरस्कार देने के लिए केंद्र को प्रस्ताव भेजा।

Uttarakhand forest

देश ले इन गांवों से सबक
वास्तव में देखा जाए तो बंड पट्टी के दो गांवों की ये महिलायें लोगों के लिए प्रेरणास्रोत हैं। बंजर भूमि पर विशाल जंगल उगाकर इन्होंने दिखा दिया की पहाड़ की मात्रृशक्ति अगर ठान लें तो कोई भी कार्य असंभव नहीं हैं। यही नहीं ये जंगल सामूहिक सहभागिता का सबसे बड़ा उदाहरण है। अकेले प्रयासों से इतना बड़ा कार्य संभव नहीं हो सकता। इस जात्रा में सभी का सहयोग रहा है। कोरोना काल में ऑक्सीजन की कमी नें लोगों को पर्यावरण के प्रति संवेदनशील और जागरूक बनाया है। लोगों को पर्यावरण की महत्ता का अहसास हुआ है। उम्मीद की जानी चाहिए कि आने वाले समय में पूरा देश इन दो गांवो के ग्रामीणों के कार्यों का धरातलीय अनुसरण करें।
(आप सभी को पुनः विश्व पर्यावरण दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं💐💐💐)

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